हिन्दुस्तानी त्रैमासिक
भाग-७१
अप्रैल-जून,
सन् २०१०
अंक-२
सम्पादक - राम केवल (पी०सी०एस०)
सचिव
सहायक सम्पादक
ज्योतिर्मयी
मूल्य : ३० रुपये
वार्षिक : १२० रुपये
सम्पादकीय
एक जागरुक और सक्रिय साहित्यकार समाज में घटने वाली तमाम घटनाओं से अनभिज्ञ नहीं रह सकता। वह देश-काल में आने वाले तमाम उतार चढ़ावों की जब्ज टटोल कर चिन्तन और मनन के द्वारा उसकी गति-दिशा के अनुरूप ही साहित्य रचता है। ताकि वह समाज को कुछ नया दे सके या उसमें कुछ नया जोड सके। आज राष्ट्र को अनेक चुनौतियों से जूझना पड रहा है। राष्ट्र की सार्वभौम सत्ता और भावात्मक एकता को कई प्रकार की विरोधी चुनौतियों का सामना करना पड रहा है। विषम परिस्थितियों में साहित्यकार का दायित्व और भी बढ जाता है। देश की भावात्मक एकता-अस्मिता की रक्षा के लिए लेखनी तथा वाणी का सजग-सुदृढ संबल रखना आवश्यक होता है ताकि राष्ट्रीय चरित्र और उदात्त मानवीय मूल्यों की रक्षा संभव हो सके। समय-समय पर साहित्य एवं साहित्यकारों ने अपने दायित्व का निर्वहन पूरी निष्ठा और समर्पण से किया है।
किसी भी युग, देश-काल का साहित्य अपने समय का आईना होता है, वह युग निर्माता की भूमिका निभाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एक व्यक्ति के रूप में, एक समूह के रूप में जो भी चिन्तन-मनन करता है या भावना और विवेक के स्तर पर जो भी रचना है वो लिपिबद्ध होकर उस काल खण्ड का साहित्य बन जाता है। 'साहित्य' शब्द में मनुष्य के उत्सर्ग, विकास एवं हित साधन का भाव अन्तर्निहित है। किसी काल खण्ड को जानने के लिए उसकी संस्कृति, कला एवं साहित्य को जानना परमावश्यक है। साहित्य शब्द में 'सहित' और 'हित' का भाव छुपा हुआ है अर्थात जो रचना 'मानुष सत्य' को लेकर चलती है, मनुष्यता का हित करती है वही साहित्य है। संस्कृत में कहा गया है 'सहितस्य भावं साहित्यम् '। अतः साहित्यकार का उद्देश्य वही रचना करना है जिनसे देश, काल, मनुष्य और समाज का भला हो, वह अपने परिवेश के निकटस्थ हो। साहित्य और समाज दोनों एक दूसरे के उत्प्रेरक हैं। एक दूसरे की क्रिया-प्रतिक्रिया हैं। साहित्यकार अपने देश-काल, समाज और परिवेश से कटकर नहीं रह सकता, वह इनके बीच ही सुनता, गुनता और बुनता है। अतः साहित्यकार को समाज और साहित्य दोनों के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करना पड़ता है।
साहित्यकार की मानसिकता युग-सापेक्ष तो होती ही है, परम्पराओं और मूल्यबोध की उदात्त अनुभूतियों से भी रची-बसी होती है। वह अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को टटोलता हुआ भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है, इसीलिए साहित्यकार स्वप्नदृष्टा ही नही भविष्यद्रष्टा भी होता है। जब भी राष्ट्र की स्वतंत्रता और संस्कृति संकट में पड़ी साहित्यकारों ने राष्ट्र, समाज और संस्कृति में नये प्राण फूंके। वर्तमान में भी साहित्यकार का दायित्व हो जाता है कि वह सभ्यता-संस्कृति, देश समाज में नयी ऊर्जा का संचार करे तथा उन्हें अपने उद्देश्यों से भटकने न दे। हर युग में लेखनी के तेवर ने युग निर्माण किया है। आज भी साहित्यकारों को चुनौतियों एवं विरोधों का उचित उत्तर देना होगा।
हमारी कोशिश है कि 'हिन्दुस्तानी' आपके समक्ष सम-सामयिक दृष्टि के साथ चिन्तनपरक एवं तथ्यपूर्ण शोध आलेखों को प्रस्तुत करे। इसके लिए आवश्यक है कि पाठकों के साथ ही हमें लेखकों का भी भरपूर सहयोग मिलता रहे। यह अंक भी विविधता लिये हुए है। इसमें डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी का 'नृत्य और संगीत कला : आस्वाद पक्ष', डॉ० त्रिवेणी दत्त शुक्ल का 'बुन्देली लोक जीवन के अप्रतिम कवि ईसुरी', डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का 'हिन्दी दलित साहित्य में सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा', डॉ० सरोज सिंह का 'हिन्दी उपन्यास की समाजशास्त्रीय आलोचना : नाच्यौ बहुत गोपाल के विशेष संदर्भ में, डॉ० राजेश कुमार गर्ग का 'आठवें दशक की कहानी में महानगर चेतना', 'प्राचीन भारतीय संस्कारों की वर्तमान में प्रासंगिकता' - श्रीमती मनोज मिश्रा का आलेख शामिल किये गये हैं। वैसे यह अंक कितना पठनीय और महत्वपूर्ण है यह तो पाठकगण ही सुनिश्चित करेंगे। 'हिन्दुस्तानी' मूलतः शोध पत्रिका है अतः शोधपरक मौलिक लेखों को प्रस्तुत करना हमारी प्राथमिकता रही है। आपकी प्रतिक्रिया का हमें इन्तजार रहेगा।
राम केवल
सचिव हिन्दुस्तानी एकेडेमी,
इलाहाबाद
हमारी शुभकामना सदा आपके साथ है!
जवाब देंहटाएंनये अंक की जानकारी के लिए आभार।
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