हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक शोध एवं सृजन पत्रिका)
भाग-७१
जनवरी-मार्च सन् २०१०
अंक : १
सम्पादक : डॉ० एस०के० पाण्डेय, पी०सी०एस०, सचिव
सहायक सम्पादक : ज्योतिर्मयी
मूल्य : ३०.०० तीस रुपये मात्र
वार्षिक : १२०.०० एक सौ बीस रुपये मात्र
सम्पादकीय
वर्तमान में सर्वाधिक चिन्ता तथा चिन्तन का विषय है जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास तथा भारतीय संस्कृति का निरन्तर क्षरण। देश मनसा-वाचा-कर्मणा अपनी संस्कृति के उदात्त मूल्यों को ग्रहण कर सके, इसके लिए आवश्यक है कि अपनी भाषाओं और उन भाषाओं की मूलाधार देववाणी संस्कृत को अपनाने के लिए अधिकाधिक बल दिया जाए। वर्तमान में मानव अपने धार्मिक ग्रन्थों, वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, पुराणों व स्मृतियों इत्यादि से दूर होता चला जा रहा है। जब तक भारतीय जनमानस से पाश्चात्य भाषा तथा संस्कृति के प्रति मोहग्रस्तता का अन्त नहीं होगा तब तक भारतीय संस्कृति और मूल्यों के प्रति उदासीनता बनी रहेगी और हम अपनी संस्कृति से दूर होते जाएंगे। भारतीय संस्कृति, धर्म, त्याग, सेवा और बलिदान जैसे उदात्त मूल्यों पर आधारि है। पंडित नेहरू ने एक बार कहा था कि, ''मैं प्रायः सोचता हूं कि जिन अनेक चीजों ने भारत को उसके हजारों वर्ष के इतिहास में प्रसिद्धि दिलाई है, उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कौन सी है? मुझे इसमें संदेह नहीं कि वह संस्कृत भाषा ही है। मेरा विचार है कि वही हमारी जाति की प्रतिभा का, हमारी जाति की अक्लमंदी का और लगभग उस हर चीज की प्रतिमूर्ति है, जिसका उद्भव बाद के वर्षों में हुआ और जिसके बारे में किसी न किसी प्रकार खोजा जा सकता है कि उसका जन्म इस शानदार भाषा से जुड़ा हुआ है।''
भाषा वैज्ञानिकों वैयाकरणों तथा दार्शनिकों का मानना है कि भाषा की दृष्टि से विचारों के आदान-प्रदान के लिए संस्कृत सर्वांगपूर्ण माध्यम है। संस्कृत भाषा सर्वाधिक जीवन्त और वैज्ञानिक है। सर विलियम जोन्स ने अपने भाषण में कहा था कि '' संस्कृत भाषा की प्राचीनता जो भी हो, उसका गठन अद्भुत है। वह ग्रीक से भी अधिक पूर्ण है, उसका शब्द भंडार लैटिन से भी विशाल है। वह इन दोनों से अधिक सुसंस्कृत है।'' संस्कृत साहित्य की संस्कृति सामंजस्य तथा समरसता की है। संस्कृत साहित्य के भीतर सारगर्भित मूल्यों का प्रचुर भण्डार है। जिनमें दर्शन, तत्वमीमांसा, धार्मिक चिंतन, शल्यक्रिया, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तुकला, काव्य, अलंकार शास्त्र, नाटक, खगोल शास्त्र, भू-विज्ञान इत्यादि उल्लेखनीय हैं। संस्कृत साहित्य का सत्य है- मानुष सत्य, मानवीयता। मानव मात्र की सद्भावना, कल्याण, एकता और शान्ति स्थापना से ओत-प्रोत हैं 'संस्कृत साहित्य'।
यद्यपि आज संस्कृत भाषा के पठन-पाठन तथा मातृभाषा के रूप में प्रयोग करने वाले लोगों में निरन्तर कमी आयी है। किन्तु संस्कृत भाषा का लोप होना कठिन है क्योंकि आज भी संस्कृत साहित्य की लोकप्रियता बनी हुई है। यहां तक की यूरोप, अमेरिका, रूस और जापान में संस्कृत के अध्ययन के प्रति रुचि बढ़ी है। हमारे लिए जरूरी है कि हम अपनी विरासत, संस्कृति तथा मूल्यों को सहेजने के लिए संस्कृत भाषा के संवर्द्धन तथा संरक्षण का प्रयास करें। भारत की प्रतिष्ठा इसकी संस्कृति एवं संस्कृत भाषा से है। संस्कृत साहित्य के विशाल ज्ञान भंडार को सहेजने की जरूरत है।
नये वर्ष का हिन्दुस्तानी का नया अंक एक सामान्य अंक के रूप में आपके हाथों में है। हमारी पुरजोर कोशिश रही है कि हिन्दुस्तानी के आलेखों में विविधता के साथ गाम्भीर्य तथा रोचकता दोनों बनी रहे। इसीलिए जीवन तथा साहित्य दोनों के विभिन्न पक्षों को शामिल करने की कोशिश की गयी है। इसीलिए जहां एक तरफ डॉ० ताहिर अली खान का आलेख 'कामायनी और मार्क्सवादी दृष्टि', चन्द्रप्रकाश का 'जौनपुर जनपद का पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक महत्व', डॉ० दीपा अग्रवाल का 'वेदों में राष्ट्रीय भावना', डॉ० गोविन्द स्वरूप गुप्त का 'भारतीय भाषिक एकता और हिन्दी', डॉ० देवेन्द्र कुमार का 'सरस्वती पत्रिका के निर्माण और उत्थान में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान', डॉ० अतुल कुमार तिवारी का 'इतिहास एवं साहित्य का अनूठा संगम', नीलाभ कुमार का 'उपेन्द्र नाथ 'अश्क' और सआदत हसन मण्टो की कहानियों में अभिव्यक्त मानवीय अस्तित्व की बुनियादी सच्चाई', जैसे आलेख हैं तो दूसरी तरफ हेमन्त कुमार मिश्र का '१८वीं शताब्दी में नारी की स्थिति और उसका समकालीन साहित्य में चित्रण', डॉ० अर्चना भटनागर का 'प्रारम्भिक मध्यकाल में स्त्रियों के मनोरंजन के साधन', डॉ० रेखा शुक्ला का 'संस्कृत नाट्यकला तथा संगीतकला का अन्तःसम्बन्ध', डॉ० कीर्ति कुमार सिंह का 'भारतीय परिप्रेक्ष्य में ज्ञान और विश्वास : एक विश्लेषण', डॉ० साधना द्विवेदी का 'धर्मशास्त्रों में स्त्री की पारिवारिक भूमिका', ऋचा मिश्रा का 'भारत में बौद्धिक संपदा-अधिकार प्राविधान स्वरूप और प्रभाव', डॉ० मिथिलेश कुमारी मिश्र का 'रामचरित मानस में प्रयुक्त लौकिक न्याय और उनका भाषा वैज्ञानिक विवेचन', ओम प्रकाश 'दार्शनिक' का 'गोस्वामी जी की चिंताधारा में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता एवं भरत-पात्रों का स्वरूप' जैसे महत्वपूर्ण आलेख हैं। आशा और विश्वास है कि यह अंक भी अन्य अंकों की भांति पाठकों के बीच पठनीय अस्तु संग्रहणीय होगा तथा सुधी पाठक अपनी प्रतिक्रिया से निरन्तर अवगत करायेंगे।
डॉ० एस०के० पाण्डेय
सचिव/सम्पादक
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