हिन्दुस्तानी एकेडेमी में जन सूचना अधिकार का सम्मान

जनसूचना अधिकारी श्री इंद्रजीत विश्वकर्मा, कोषाध्यक्ष, हिन्दुस्तानी एकेडेमी,इलाहाबाद व मुख्य कोषाधिकारी, इलाहाबाद। आवास-स्ट्रेची रोड, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद कार्यालय-१२ डी,कमलानेहरू मार्ग, इलाहाबाद
प्रथम अपीलीय अधिकारी श्री प्रदीप कुमार्, सचिव,हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद व अपर जिलाधिकारी(नगर्), इलाहाबाद। आवास-कलेक्ट्रेट, इलाहाबाद कार्यालय-१२डी, कमलानेहरू मार्ग, इलाहाबाद
दूरभाष कार्यालय - (०५३२)- २४०७६२५

सोमवार, 13 जुलाई 2009

पुस्तक चर्चा: चन्द्रालोक परिशीलन

 

ChandraLokParishilan

   चन्द्रालोक परिशीलन
लेखिका: डॉ० स्मिता अग्रवाल
मूल्य : २५० रुपये , पृष्ठ ३४० सजिल्द


 

प्रकाशन वर्ष २००९ 

 

 

‘चन्द्रालोक’ कोई साधारण ग्रन्थ नहीं है। दस मयूखों में विभक्त यह ग्रन्थ स्वयं में अनेक काव्यशास्त्रीय आचार्यों के सिद्धान्तों के मनन-चिन्तन पूर्वक निकाला गया नवनीत है। चन्द्रालोक की शैली नवीन एवं सूत्रात्मक है, जिसके कारण कहीं-कहीं पर आचार्य अपने सिद्धान्तों को स्पष्ट करने में असमर्थ हैं। अत: उनके ज्ञान हेतु पूर्ववर्ती एवं कतिपय पश्चाद्वर्ती आचार्यों के ग्रन्थों का अवलम्बन आवश्यक है।
आचार्य जयदेव संस्कृत काव्यशास्त्रीय आचार्यों के मध्य तक एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। जयदेव न केवल आलंकारिक हैं, अपितु ध्वनिवादी आचार्य भी हैं। जयदेव की दोनों कृतियॉं चन्द्रालोक तथा प्रसन्नराघव नाटक उनकी अद्भुत कविप्रतिभा एवं विलक्षणता को प्रकट करती है। चन्द्रालोक काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है, तो प्रसन्नराघव नाट्यविद्या का ग्रन्थ। जयदेव कवि होने के साथ सहृदय एवं तार्किक भी हैं। उन्होंने न केवल अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा को आगे बढ़ाया, अपितु संस्कृत-साहित्य को ‘चन्द्रालोक’ के रूप में अनूठी, गूढ़, सैद्धान्तिक कृति प्रदान की।
चन्द्रालोक में काव्यस्वरूप से सम्बद्ध प्रत्येक मयूख नवीन सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है। मम्मट के उत्तराधिकारी के रूप में यदि आचार्य जयदेव की कल्पना की जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जयदेव ने अपने ग्रन्थ का आधार मम्मट द्वारा प्रणीत काव्यप्रकाश को ही बनाया है। आचार्य अप्पयदीक्षित जो आचार्य जयदेव के अलंकार प्रसंग से अत्यन्त प्रभावित थे तथा चन्द्रालोक के पंचम मयूख को ही आधार बनाकर उन्होंने सम्पूर्ण ग्रन्थ ‘कुवलयानन्द’ की रचना की - उन्हें ग्रहण करने का यथेष्ट प्रयास ग्रन्थ में किया गया है। (

डॉ.एस.के.पाण्डेय)

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