सम्पादकीय
पंडित विद्यानिवास मिश्र ऐसे विशाल वटवृक्ष के समान थे जिसकी सघनता में संस्कृति, परम्परा और संस्कारों के बीज प्रस्फुटित होते हैं। उन्हें भारतीयता, भारतीय संस्कृति और उसके मूल्य बोध से अपार लगाव था। वे पंक्ति पावन ब्राह्मण थे। वह ऐसे बुजुर्ग थे जिन्हें अपनी परम्परा, विश्वासों और आस्थाओं के प्रति अटूट निष्ठा थी, जिसे वह आजीवन निभाते रहे। धोती-कुर्ता और माथे पर चन्दन उनकी पहचान थी, जो देश हो या विदेश कभी नहीं मिटी। उनके जाने से रिक्त हुआ स्थान आज ज्यों का त्यों खाली पड़ा है। कहते हैं समय के साथ घाव भर जाता है पर यह घाव आज भी हरा है। इसके मिटने के आसार फिलहाल दिखाई नहीं पड़ते। ‘हिन्दुस्तानी’ का यह अंक उनकी स्मृतियों को समर्पित है।
पंडित विद्यानिवास मिश्र जी सम्पूर्ण विश्व के साथ जीवन को जोड़कर देखने वाले भारतीय विचारक थे। उन्हें ‘विश्व मन की बेचैनी’ की थाह थी। ‘संस्कृति के नये संदर्भ’ व्याख्यानमाला के अन्तर्गत ‘विश्वमन की बेचैनी’ विषय पर हिन्दुस्तानी एकेडेमी में उन्होंने कहा था ‘मनुष्य ही सबकुछ है। मनुष्य की चिन्ता करनी चाहिए। मनुष्य है तो सब-कुछ है। मनुष्य ही ईश्वर को बनानेवाला है। मनुष्य सारे विश्व की कल्पना करनेवाला है। मनुष्य मनुष्य को केन्द्र मानकर सारे विश्व की चिन्ता करने वाला है। मनुष्य के लिए सारी पृथ्वी उपभोग के रूप में प्रस्तुत है। मनुष्य को केन्द्र मानकर सारे विश्व की अवधारणा में कहीं न कहीं दरार पड़ गयी है। केवल एक केन्द्र मानने से काम नहीं चलेगा। अनेक केन्द्र हैं। सबसे बड़ी सकारात्मक हलचल इस बहुकेन्दता को पहचानने की है। अगर केवल मनुष्य को केन्द्र में रखते हैं तो जीवन का विनाश होता है। विनाश होने की संभावना होती है। प्रत्येक अनुशासन में यह बात दिखायी पड़ रही है। चाहे मनोविज्ञान हो, चाहे राजनीति हो, चाहे अर्थशास्त्र हो, चाहे जीव विज्ञान हो, वनस्पति विज्ञान हो, सभी जगह यही दिखायी पड़ता है कि इन पदाथो± को न देखो, पदाथो± की सम्बद्धता को देखो, इकाई को न देखो, इकाइयों के ग्रन्थन को देखो।’
पंडित जी के लिए ‘मानुष सत्य’ ही सर्वोपरि है, इसीलिये उनकी मूल चिन्ता ‘विश्व मन की बेचैनी’ को लेकर थी। पं० विद्यानिवास मिश्र ने अपनी मौलिक प्रतिभा और साधना के द्वारा भारतीय चिंतक तथा संस्कृति पुरुष के प्रतीक के रुप में प्रतिष्ठा अर्जित की थी। डॉ० राम मनोहर लोहिया के साहचर्य में उन्होंने धार्मिक परम्पराओं की भी पड़ताल की और धर्म की जड़ता को स्पष्ट किया। ‘धर्म की जड़ता ही अधर्म है, धर्म का ठहराव ही अधर्म है और इसलिए धर्म की गतिशीलता समस्त (भारतीय) दर्शनों, साहित्यों और कलाओं पर छायी हुई है।’
भारतीय चिन्तन परम्परा में गहरे तक पैठे पंडित जी ने रूढ़िवाद और जड़ता पर गहरे प्रहार किये। नवीन को संस्कारित रूप में स्वीकारा और एक नयी दिशा दी। उनका वैदुष्य सूखे पाण्डित्य और संकीर्णता से अलग सर्जनशील था जहाँ नवीनता के लिए सदैव जगह थी। अनेक विदेश यात्राओं ने पण्डित जी के भीतर हमेशा कुछ नया जोड़ा। भारतीयता से परिपूर्ण मन को संजोते हुए उन्होंने हमेशा नये को स्वीकारा, उसे जगह दी। उनका परम्परित मन संकीर्ण नहीं था, बल्कि रूढ़, जड़ और घिसे-पिटे नियमों के लिए उनके मन में कोई जगह न थी। उन्हें भारतीय संस्कृति और संस्कारों के प्रति अपूर्व आस्था थी। परन्तु उनकी आस्तिकता में जड़ता नहीं थी। वे मेधा और प्रज्ञा के साथ साहित्य में नित नये अर्थों का उन्मेष करने वाले थे। उन्होंने ‘भारतीयता की पहचान’ निबन्ध संग्रह के आमुख में लिखा है -
‘भारतीयता की पहचान एक सतत् व्यापार है और वह वस्तुत: अपनी ही पहचान है, इसलिए मैं इसकी सार्थकता निरन्तर अनुभव करता हूँ। इस प्रयत्न में अपनी ही संस्कृति के Åपर केवल आस्था नहीं होती, वरन् विश्व संस्कृति को भी समझने के लिए एक खुला मन मिलता है, जो किसी भी जातीय या देशीय पूर्वाग्रह से मुक्त है।’
हिन्दुस्तानी का यह अंक पंडित जी की स्मृतियों को संजोने का एक प्रयास है। इसमें मिश्र जी के विविध रुप हैं। मुख्य आलेखों में ‘परम्परा बंधन नहीं’ - प्रेमशंकर जी का आलेख, ‘जातीय स्मृति की धूपछाँह’ - निर्मल वर्मा का, ‘शास्त्र और लोक के बीच’ - अशोक बाजपेयी जी का, पंडित विद्या निवास मिश्र : विद्या और विनय का संश्लेषण - डॉ० रामकमल राय का, पंडित विद्या निवास मिश्र और हिन्दी पत्रकारिता - अच्युतानंद मिश्र जी का, विद्यानिवास मिश्र : सामंजस्य और समन्वय के बीच - डॉ० रामस्वरुप चतुर्वेदी जी का, डॉ० विद्यानिवास मिश्र : संस्कृति और लोक चेतना के चितेरे - डॉ० मधुसूदन पाटिल का, प्रो० विद्यानिवास मिश्र : एक बहुआयामी व्यक्तित्व - डॉ० रामनरेश त्रिपाठी जी का महत्त्वपूर्ण हैं। डॉ० शिवगोपाल मिश्र जी के सौजन्य से पंडित जी के अमरीका प्रवास के दौरान डॉ० उदयनारायण तिवारी जी को लिखे गये चार पत्र भी इसमें सम्मलित किये गये हैं। साथ ही डॉ० कविता वाचक्नवी द्वारा पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से लिया गया साक्षात्कार भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हमने सामग्री को सांगोपांग बनाने का प्रयास किया है। आशा है यह अंक अक्षर पुरुष पं० विद्यानिवास मिश्र जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सम्पूर्णता के साथ हमारे समक्ष रखेगा।
डॉ० एस०के० पाण्डेय
सचिव
हिन्दुस्तानी एकेडेमी
इलाहाबाद
यह तो संग्रहणीय अंक है ,बल्कि विशेषांक ! बधाई !
जवाब देंहटाएंअंक बहुत ही पठनीय व संगहणीय बन पड़ा है।
जवाब देंहटाएंरविवार को स्वतन्त्रवार्ता के अपने साप्ताहिक पुस्तकचर्चा स्तम्भ में ऋषभदेव जी कल इस अंक पर लिख रहे हैं।
एकेडेमी की पंडित जी पर पुस्तक भी प्रतीक्षित है।
http://rishabhuvach.blogspot.com/2009/05/blog-post_15.html
जवाब देंहटाएंइस लिंक पर वह उपलब्ध है।
यह अंक अक्षर पुरुष पं० विद्यानिवास मिश्र जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सम्पूर्णता के साथ हमारे समक्ष रखेगा।.....Vakai vilakshan ank !!
जवाब देंहटाएं___________________________________
एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया संकल्प....आप भी पढिये "शब्द-शिखर" पर.
नमस्कार!! मैं तीन महीने के पूर्व आपको ७५० रुपये का एक चेक भेजा था--आपसे प्रकाशित सूर्य विमर्श नामक पुस्तक के लिए. परंतु आज तक आपसे कोई सूचना नहीम उपलब्ध हुआ हेई. कृपया बता दीजिये हम क्या करना चाहिए. चेक नंबर ३१९३. बैंक : स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावन्कोर , केरल, पुस्तक का नाम: सूर्य विमर्श, मूल्य: १७५ रुपये. प्रणाम!!!
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