हिन्दुस्तानी एकेडेमी में जन सूचना अधिकार का सम्मान

जनसूचना अधिकारी श्री इंद्रजीत विश्वकर्मा, कोषाध्यक्ष, हिन्दुस्तानी एकेडेमी,इलाहाबाद व मुख्य कोषाधिकारी, इलाहाबाद। आवास-स्ट्रेची रोड, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद कार्यालय-१२ डी,कमलानेहरू मार्ग, इलाहाबाद
प्रथम अपीलीय अधिकारी श्री प्रदीप कुमार्, सचिव,हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद व अपर जिलाधिकारी(नगर्), इलाहाबाद। आवास-कलेक्ट्रेट, इलाहाबाद कार्यालय-१२डी, कमलानेहरू मार्ग, इलाहाबाद
दूरभाष कार्यालय - (०५३२)- २४०७६२५

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

कन्हैया लाल सेठिया की काव्य-चेतना और शिल्प- प्रो० रामकिशोर शर्मा

हिन्दुस्तानी त्रैमासिक के पिछले अंक में (अक्टू.-दिसं.२००८) जब हमने कन्हैयालाल सेठिया जी की काव्यचेतना और शिल्प पर एक लम्बा आलेख प्रकाशित किया था, तो वे जीवित थे। तब हम क्या जानते थे कि इस मनीषी को समर्पित यह अंक जब पाठकों के हाथों में होगा उसी समय हमें उन्हें अश्रु-पूरित श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़ेगी। मंगलवार 11 नवम्बर 2008 की सुबह कोलकाता में 89 वर्षीय महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया का निधन हो गया। उन्हें याद करते हुए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वह आलेख मूल रूप में:

राजस्थानी और हिन्दी के वरिष्ठ तथा श्रेष्ठ रचनाकार कन्हैया लाल सेठिया ने उस समय अपनी आँखें खोलीं जिस समय हिन्दी साहित्य में छायवाद का उन्मेष हो रहा था। छायावाद का समय सामान्यत: १९१८-३६ तक माना जाता है और कन्हैयालाल जी का जन्म ११ सितम्बर, १९१९ ई० को हुआ। छायावादकी संवेदना उनकी चेतना में जाने-अनजाने घुलती रही और उनकी कविताओं की प्रथम संकलित कृति वनफूल १९४० ई० में प्रकाशित हुई। कवि प्रकृति के सन्निकट जाकर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उन्मत्त नहीं होता है बल्कि उसे लगता है कि आधुनिक मानव प्रकृति से इतनी अधिक दूर चला गया है कि प्रकृति के पशु-पक्षी उससे निर्भय नहीं रह गए हैं। वह अपनी पहली कविता ‘कली कली’ में प्रकृति के पास निर्भयता का संदेश लेकर जाता है -

हो तुम निर्भय/ हूँ मैं निश्‍चाय/ तेरा संगी/ नहीं छली/ कली-कली/ उड़ तितली।

सेठिया जी ने प्रकृति तथा प्रणय सम्बन्धी अनेक कविताओं का सृजन किया है। उनके प्रकृति सम्बन्धी गीतों में जीवन का उल्लास प्रगति का तीव्र आवेग और विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन से जूझने की अदम्य लालसा है। वे प्रकृतिमें अपने सुख-दुख की छाया-प्रतिछाया की अनुभूतियों से संतृप्त नहीं होते बल्कि प्रकृति और मानव जीवन में समभाव से रसोद्रेक की कामना करते हैं। मधुमास का आह्वान करते हुए वे कहते हैं -

मधुमास आ रे नृत्य कर दे!
दीनता सब भूल जाएँ
लास के हँस गीत गाएँ
आनिमन्त्रण आज तुझको
मेदिनी में मोद भर दे।
(वनफूल, पृ० ३५)

सेठिया जी अपनी काव्य यात्रा के किसी निश्चित पड़ाव तक ही प्रकृति से नहीं जुड़ते बल्कि संपूर्ण काव्य यात्रा में उनका लगाव प्रकृति की छवियों से बना रहा। उनकी जीवनानुभूतियाँ तथा प्राकृतिक सौन्दर्यानुभूतियाँ बहुत कुछ संश्लिष्ट रुप में ही अभिव्यक्त हुई हैं। उनमें कालगत परिवर्तनों तथा सम-सामयिक यथार्थ की विविध सूक्ष्म परतें प्रकृति बिम्बों से ही खुलती नजर आती हैं। काव्य साधना के अनुक्रम में आन्तरिक और बाप्र प्रकृति का अद्वैत हो जाता है। उनके अधार मंष मधु ऋतु, पलकों में पतझर, साँसों में मलयानिल, आहों में झंझावात, समा जाते हैं। काव्य में प्रकृति का चित्रण शताब्दियों से होता आ रहा है लेकिन कवि अपनी उर्वर कल्पना से उसे नए-नए रुपों में अपनी कविता में सजाता है और सँवारता है। सेठिया जी ने कल्पना के माध्यम से प्रकृति के जिन चित्रों को उकेरा है उनमें उनका अपना निजी रंग है इसलिए वह अनुपम एवं अनूप है। महाकवि निराला द्वारा रचित ‘संध्या सुन्दरी’ कविता बहुत चर्चित एवं प्रसंशित है लेकिन सेठिया जी ने नभ से उतरती हुई साँझ खगी की जो कल्पना की है वह कम आकर्षक नहीं है -

नभ तरु से उतरी साँझ खगी!
वह चुनने दिक के दाने को,
झिंगुर के स्वर में गाने को
वे दीख रहे तारक अंडे,
हीरों सी उनकी पाँत जगी!
उड़ने को उद्यत फिर ऊपर
लो खोल रही अब तम के पर।

(कन्हैया लाल सेठिया समग्र, पृ० २२१)

साँझ की पंक्षी के रुप में यह बिम्ब-योजना आकाश से उतरने वाली संध्या सुन्दरी परी सी की तुलना में अधिक यथार्थपरक प्रतीत होती है।

सेठिया जी के यहँ यदि फूल आता है तो वह सुगन्ध विखेरने का ही कार्य नहीं करता और किसी प्रतिमा पर अर्पित होकर गौरवान्वित भी नहीं होता वह अपने अन्तर को बिंधवाकर व्यथा को भी सहने के लिए तैयार रहता है।

सेठिया के गीतों में व्याप्त संवेदना लौकिकता तथा अलौकिकता की सीमा रेखा को मिटा देती है लेकिन अपने पूर्ववर्ती छायावादी कवियों की तरह वे अपने गीतों पर अलौकिकता का आवरण डालने की चेष्टा नहीं करते हैं। प्रेम की मानवीय परिणतियोंके प्रति वे पूरी तरह सजग हैं। यहीं नहीं उनके गीतों में परिवर्तनशील जगत की क्रूरताओं तथा बेरहमी का भी बोध निहित है। प्रेम की आधुनिक बिडम्बना को व्यंजित करनेवाली पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

मैं तो समझा तू है मेरा,
पर तूने व्यापार किया था।
मैंने तुझको प्यार किया था।


वर्तमान युग में मनुष्य की संवेदना व्यावसायिक वृत्ति के कारण सूखती जा रही है। अब तो प्राणिमात्र में व्याप्त प्रेमभाव भी उससे अछूता नहीं रह गया है। कवि की चिन्ता आज के परिप्रेक्ष्य में कितनी प्रासंगिक है। कवि का धर्म यथार्थ को चित्रित करने तक सीमित नहीं रहता है। वह उन मूल्यों और आदर्शों को भी अपनी रचना के अन्तराल से उभारने का प्रयत्न करता है। सेठिया जी उपदेशात्मक शैलीको छोड़कर आत्मबोध के माध्यम से आदर्श मानवीयता को रुपायित करते हैं। ‘मैं तरु का पंक्षी एकाकी’ कविता में पक्षी और वृक्ष के बिम्ब द्वारा वे एक बड़े सत्य को उद्भासित करते हैं - पक्षी सोचता है कि मैं पतझड़ के आने पर वृक्ष का साथ छोड़कर कैसे उड़ जाऊँ। इस वृक्ष ने मुझे माया-ममता दी। दुष्ट व्याध की क्रुद्ध कृष्टि से बचाया, इसने अपना जीवन रस देकर मेरा पालन-पोषण किया, इसके साथ रहने की मादक स्मृतियाँ चेतना में अंकित हैं अत: -

इसके दुख में मेरा दुख है
इसके सुख में मेरा सुख है
मैं हूँ प्यासा चातक वन का
यह है मेरा सावन का घन
इसका जीवन मेरा जीवन (पृ० १६)


स्वार्थ तथा सुख की तलाश में आदमी का आत्मीय लगाव न तो अपनी जन्मभूमि से रह गया है और न अपने परिवार और समाज से। सारे सम्बन्धों को तोड़कर बेहतर सुविधाओं के लिए आदमी चिड़िया की तरह ही फुर्र हो जाता है। अपने साथी को दुर्दिन में पड़ा देखकर कौन उसके साथ जीने-मरने को तैयार होता है। प्रकृति और प्रणय के संश्लिष्ट चित्रों की निर्मिति विशेष रुप से आकर्षित करती है। महाकवि निराला ने ‘जूही की कली’ में प्रकृति के माध्यम से जो मानवीय प्रणय का ऐन्द्रिक तथा उत्तेजक चित्र खींचा है जिसकी सराहना हिन्दी के आलोचकों द्वारा की गयी है, सेठिया जी ने भी उसी तरह के अनेक प्रणय चित्रों को प्रकृति के उपादान से अंकित किया है। ‘कोसों तक फैली हरियाली’ कविता में मिलन के एक नहीं अनेक कृश्य हैं। आम्र मंजरी की गंध से विàल कोयल की कूक, सिकता तट पर सूरज’ की सोती उजियाली, युवती के समान चंचल निर्झरिणी, प्रणय का गीत गाता हुआ मधुकर, डाल-डाल को सिहरा देने वाला मलय समीरण, ऐसा लगता है कि संपूर्ण प्रकृति ही महामिलन की क्रीड़ा में मग्न है।

घनानन्द की तरह कवि को मिलन में भी विरह की व्यथा रहती है। घनानन्द को सुजान नाम की वेश्या ने धोखा दिया था किन्तु आज तो प्रेम का हर पथ खुदगर्जी तथा प्रवंचना का शिकार हो गया है। धोखा, छल-कपट, निष्ठाहीनता के माहौल में प्रेम करने वाले को कायर तथा बुजदिल समझा जाता है। इसीलिए तो कवि कहता है कि -

कोई मेरा मीत नहीं है
दुर्बल मेरा मन जब पाया
तूने अनुचित लाभ उठाया,
दुर्बलता से लाभ उठाना,
मानवता की जीत नहीं है।
(पृ० २१)

संसार की गति द्वन्द्वात्मक है। सुख-दुख, आशा-निराशा, जीवन-मृत्यु, रात-दिन, मिलन-वियोग के रहस्य को समझने की चेष्टा ही कवि को महान बनाती है। कवि ने दीपक से संदर्भित अनेक कविताएँ लिखी हैं। दीपक राग के उन्मेष में महादेवी की प्रेरणा हो सकती है लेकिन सेठिया जी की भावभूमि उनसे अलग है। सेठिया की कविताओं में जीवन का क्रूर सत्य मृदुल शब्दों में ढाला गया है, वह विद्युत की तरह दीप्त है उसे शब्दों के आवरण में ही देखा-परखा जा सकता है किन्तु भीतर से छूने का प्रयत्न विद्युत लहर की तरह तेज झटका देता है। प्यार की कविताओं के गाहक बहुत हैं। किन्तु व्यथा के गीत सुनने की किसे फुर्सत है। यह व्यथा कवि की निजी नहीं है बल्कि दीन-दुखियों, पीड़ितों, असहाय-अकिंचन जन के बीच रहकर कवि ने अपने सुख को त्यागकर उस व्यथा को आत्मसात किया है। उसकी कविता में समष्टि का दुख-दैन्य समाया है, उसका साक्षात्कार करने का साहस वही कर सकता है जो महात्मा बुद्ध की तरह भोग-विलास एवं राजसी ऐश्वर्य के बीच भी वैरागीमन लिए हुए है जिसने मानवता की पीड़ा से व्यथित होकर सब कुछ त्यागने का संकल्प लिया था। कोई कबीर ही अपने सुख को त्यागकर मानवता की पीड़ा को समझ सकता है -

सुखिया सब संसार है खाए और सोए
दुखिया दास कबीर है जागे और रोए


कन्हैयालाल सेठिया जीवन के ज्ञात सत्य पर परदा डालने की कोशिश नहीं करते हैं बल्कि सच्चाई का साक्षात्कार करनेकी हिम्मत जुटाते हैं। सर्वत्र मृग तृष्णा है, शान्ति भी भ्रांन्ति का ही पर्याय है फिर भी भ्रांति के पीछे लोग पागल बनकर दौड़ रहे हैं लेकिन नर की नियति है कि सब कुछ जानकर भी उसमें फँस जाता है -

कहा यह कैसा है अज्ञान।
जग के दुख सब जानबूझकर
फँस ही जाता इसमें नर
(पृ० ३३)

यहाँ एक से विवश पंगु हैं, क्या मूरख क्या विद्वान, व्यर्थ है ज्ञानी का भी ज्ञान। विधि के विधान के आगे मनुष्य अपने को कभी-कभी निरीह मान लेता है। लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सेठिया के काव्य में नैराश्य का मूल्य अभि-व्यंजित होता है। वे मनुष्य को दुर्दम जिजीविषा तथा हिम्मत को अनेक कविताओं में उभारने की चेष्टा करते हैं, कवि का आह्वान है कि -

ओ चलने वाले रुकने का
तुम नाम वहाँ मत लेना
जो संदेशा भेजा है वह
मंजिल तक पहुँचा देना।


रास्ते में आँधी-तूफान आ सकते हैं, भयप्रद बिजली कड़क सकती है, गहन विजन गिरि मालाएँ रास्ते में अवरोध बन सकती हैं, कहीं लपकती ज्वालाएँ भस्म करने को चुनौती दे सकती हैं लेकिन मनुष्यता का जो संदेश देने का संकल्प लेकर कवि या रचनाकार अग्रसर होता है उसे रुकना नहीं चाहिए। विश्‍व की द्वन्द्वात्मक संरचना कितनी आकर्षक तथा विकर्षक है। एक और माँ की ममता और प्रिया के घूँघट की चितवन का आकर्षण होता है तो दूसरी ओर आपत्तियों और विपत्तियों का विकर्षण। इन्हीं के बीच मनुष्य के जीवन का रस निष्क्रमित होता है।

कवि यदि प्रणय तथा दीपक राग गाने में सिद्ध हस्त है तो दग्ध धरा, दग्ध गगन, दग्ध मानवी काया, दग्ध कंठ, दग्ध राग से अग्निवीणा से धधकते स्वर साधने में भी समर्थ है। प्रिय के कंठ में गलबाँही डाले जीवन रस का आकंठ पान करने वाला भारतीय वीर जब रणभेरी बजती है तो प्राणों की परवाह न करके महाकाल से टकराने के लिए प्रस्थान कर देता है। श्रृंगार और शौर्य का अद्भुत सामंजस्य राजस्थान के कवियों में शताब्दियों पहले से मिलता रहा है। महाकवि चंदवरदाई झालर से सजे हुए घोड़े का चित्रण एक नववधू के रुप में करते हैं। राजस्थान की स्वस्थ काव्य परम्परा का प्रौढ़ प्रतिफलन सेठिया की कविताओं में दिखाई पड़ता है। राजस्थान के वीरों की ललकारती हुई निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

चौंक तुम्हारे जयनादों से
हल्दीघाटी जाग उठे
चम्बल की शीतल लहरों में
महाक्रान्ति की आग उठे।
(पृ० ६०)

स्वतंत्रता संग्राम के समय जितना बलिदान सेनानियों और राष्ट्र नेताओं ने किया उनसे कम कलम के सिपाहियों ने नहीं किया। मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, निराला, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी आदि अनेक कवियों ने अपनी तेजस्वी वाणी से स्वतंत्रता की अलख जगाया और संघर्ष की चेतना को सशक्त किया। सेठिया जी ने भी भारत माँ की मुक्ति के लिए देशवासियों को उत्सर्ग के लिए दुर्गादास आदि वीरों की वीरता की यशगाथा प्रस्तुत की। मेवाड़ के वीरों को ललकारते हुए वे कहते हैं कि -

आज शेर की माँदों में है
गीदड़ का आवास
नहीं रहा क्या तुमको अपने
साहस पर विश्‍वास
माँग रही है कितने युग
पीड़ित माँ बलिदान
किन्तु छिपाए बैठे हो तुम
कायर अपने प्राण।
(अग्निवीणा, पृ० ४९)

चित्तौड़ की व्यथा का चित्रण जितना मार्मिक तथा हृदय विदारक है ‘महामरण की बेला में’ कविता के स्वर उतने उत्तेजक तथा लोमहर्षक हैं। अंग्रेजों के दमन चक्र के आगे भारतीय वीर कभी घुटने टेकनेवाला नहीं है। लौह सीखचों वाली जेलें उसकी गति को अवरुद्ध नहीं कर सकती हैं। कवि जब भैरव राग सुनाता है तो वीरों की चेतना में यहीं झंकार उठती है -

कफन बाँधकर आज खड़े हम
कातिल अपना बल अजमा लो
हम न हटेंगे एक कदम भी
चाहे जितने जुल्म ढहा लो
आज हमारी रग-रग में महालय की बिजली दौड़ी
अब न अधिक अन्याय सहेंगे, हमने युग की रासें मोड़ी।
(पृ० ५६)

उपर्युक्त पंक्तियाँ देश-कालकी परिस्थितियाँ का अतिक्रमण करके आज भी प्रासंगिक हैं। क्या आज हमारे राष्ट्र के सामने राष्ट्र विरोधी ताकतों का खूनी खेल नहीं चल रहा है। क्या आज हमें साहस के साथ उनका सामना करने की जरुरत नहीं है। आतंकवादी गतिविधियों से आहत तथा व्यथित जन-मानस को सेठिया की कविताएँ सम्प्रति ढाढस बँधाने में सक्षम हैं।

विशाल भारत में भाषा भेद है, वेश-भूषा, खान-पान रहन-सहन का भेद है किन्तु हमारी आस्थाएँ एक हैं, यही नहीं संपूर्ण विश्‍व के मानव की भूख-प्यास एक है, हवा और साँस एक है दुर्बलताएँ, वासना और प्यार एक है अत: हर मनुष्य का कत्र्तव्य है कि वह मानवता को खंडित करने वाले तत्त्वों के खिलाफ खड़ा हो। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भारतीय संदेश विश्‍व को बाजार बनाने में नहीं है बल्कि करुणा का संदेश देकर भ्रांतृत्व भाव को उजागर करने में है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन से अलग वास्तविक साम्यवाद का संदेश देनेवाली पंक्तियाँ हैं -

आओ आज जगाएँ घर घर मानवता का दीप,
देशकाल की तोड़ श्रृंखला सबके बनें समीप।
रहे न जग में जिससे कोई, पीड़ित दीन अनाथ
चलें ज्य¨ति की ओर छोड़कर अन्ध तिमिर का हाथ।
(पृ० ६२)

सेठिया जी गरीबों तथा बेसहारों के उत्थान के लिए निरन्तर सक्रिय रहे हैं। गरीबी की पीड़ा को उन्होंने गरीबों के बीच रहकर देखा है। महलों की रानी तथा चीथड़ों में पलती जिन्दगानी के विरोधाभास ने उनकी आत्मा को मथ दिया है। महलों की रानी की झोपड़ियों की पीड़ा से पोषित होती है। कवि का कहना है -

ये उभरे कुच-कलश तुम्हारे
उनके उर के छाले
मधुर निशा के प्रहर तुम्हारे
उनके दिन हैं काले।
(पृ० ६८)

सेठिया जी भारत के अतीत के प्रति गौरवान्वित हैं लेकिन वर्तमान के प्रति निराश नहीं हैं। ‘मेरा युग’ काव्य संकलन में उन्होंने समय की सच्चाइयों तथा संघर्षों को मूर्त किया है। विश्‍व में अनेक महान् पुरुष हुए जिन्होंने मनुष्यता की लड़ाई को सार्थक निष्पत्ति दी। महात्मा गांधी जयप्रकाश नारायण, बादशाह खान आदि महापुरुषों पर सार्थक रचनाओं के साथ कवि ने अपने समय की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का काव्यात्मक दस्तावेज तैयार किया है। कवि मानवता के संवेदनात्मक इतिहास को रुपायित करता है वह व्यक्ति विशेष, राजा विशेष का इतिहास नहीं होता बल्कि मनुष्यता की जययात्रा का इतिहास होता है। ‘माउण्ट वैटन’ के प्रति सेठिया जी ने जो कविता लिखी है उसमें उनकी मानवीय संवेदना को मार्मिक ढंग से उद्घाटित किया गया है।
सेठिया में समकालीनता का प्रखरबोध है, वे केवल यथार्थका वर्णन करके चुप नहीं हो जाते बल्कि विश्वमानवता को विनाश की संभावना से सजग भी करते हैं। ‘महानाश से महाराग से’ शीर्षक गीत में कवि ने शोषण, पीड़न, हिंसा आदि की विनाश लीला का चित्रण किया है।

सेठिया की काव्य धारा गीतों, लम्बी तथा लघु कविताओं के शिल्प में संयमित होकर प्रवाहित होती है। आरंभ में सेठिया की रुचि गीतों की रचना में अधिक थी। प्रचलित तत्सम, तद्भव शब्दों के विन्यास से उनके गीतों की निर्मिति हुई है। ज्यादातर शब्दांत में तुक साम्य है। गीतों में शब्द स्वत: ताल-लय में प्रवाहित होते नजर आते हैं। कहीं-कहीं दो-दो लम्बी पंक्तियाँ हैं और साथ में छोटे-छोटे पद-बन्ध नियोजित हैं जैसे -

दूधो धोए वसन तुम्हारे उन्हें न मिलता पानी,
उनका दुख ही तेरा सुख है ओ महलों की रानी।
कहता चलूँ कहानी।
ओ महलों की रानी।।


वर्णन प्रधान लम्बी कविताओं को अतुकांत रखा गया है लेकिन उनमें भी स्वाभाविक लय है। ‘मेरा युग’ इसी तरह की कविता है। प्रकृति सम्बन्धी गीतों में बिम्बों के प्रभावशाली विधान हुए हैं। प्रकृति और प्रणय या प्रकृति छवि तथा मानव छवि के संश्लिष्ट चित्रण अधिक प्रभावशाली हैं, लेकिन उनकी संरचना में भी ऋजुता दिखाई देती है। रहस्यवाद का कहीं-कहीं हल्का आवरण है इससे लौकिक प्रेम अलौकिक का स्पर्श कर लेता है। १९७१ के बाद की कविताएँ बहुत लघु आकार की हैं लगता है कि हाइकू जैसे छोटे छन्दों की प्रेरणा इन कविताओं में सक्रिय है जैसे -

शहर
शूगर कोटेड
जहर


चार, छह, आठ, दस शब्दों में बड़ी सच्चाई को अंकित करने की कला सेठिया की परवर्ती कविताओं में है। निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि कन्हैयालाल सेठिया भारतीय जीवन कृष्टि की समग्रता में निरुपित करनेवाला प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। हिन्दी के महाकवियों में उनकी गणना की जानी चाहिए।

(प्रो.रामकिशोर शर्मा)
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

7 टिप्‍पणियां:

  1. अशब्द प्रणाम,उस शब्द शिल्पी को.
    मर्म भरा
    धर्म भरा
    कर्म भरा प्रचुर
    अल्प से शब्दों में
    बह्र दी पुनः
    मन्त्र-शक्ति
    भक्तिमय शक्ति
    शक्तिशाली भक्ति
    प्रणाम.

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  2. मैं तो समझा तू है मेरा,
    पर तूने व्यापार किया था।
    मैंने तुझको प्यार किया था।
    बहुत ही सुंदर रचना लिखी आप ने
    धन्यवाद

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  3. मैं राजस्थान सेकेण्डरी बोर्ड का विद्यार्थी था और हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों में सेठिया जी के विषय में और उनकी कवितायें पढ़ी थीं। अर्सा हो गया; पर उनके ओज की छाप अब भी मन में है। आपने विस्तृत लेख दे कर भला काम किया है।

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. अच्छा हुआ कि सामग्री रूपान्तरित हो गई और इस रूप में सुरक्षित व सर्वसुलभ भी।

    सेठिया जी की कविताओं की व्याख्यापरक अन्विति ने उनके लेखन में निहित अनेक भावों ही नहीं, उन रसों का भी आस्वादन करवाया जो यह पुष्ट करते हैं कि अन्तत: हर धारा समुद्र में ही लीन हो जाती है। सेठिया जी के लेखन का सर्वस्व राष्ट्र की अस्मिता के कण-कण को ध्वनित करता है। जीवन दर्शन और जीवनादर्श की मुखर अभिव्यक्ति आत्मसात किए हुए सत्यों का पता देती है।

    शैली के स्तर पर भी विविधता और प्रयोगधर्मिता स्पष्ट देखी जा सकती है। आधुनिक जीवनसन्दर्भों पर अपना दृष्टिकोण भी बखूबी उकेरा है।
    ऐसे सहज व्यक्तित्व वाले भारतीय मानस के रचनाकार की स्मृति को प्रणाम।

    लेखक को बधाई।

    सामग्री उपलब्ध करवाने के लिए आभार।

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